सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक श्रीलंकाई तमिल नागरिक की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने भारत में शरण देने की मांग की थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि श्रीलंका में उसकी जान को खतरा है, इसलिए उसे भारत में रहने की अनुमति दी जाए।
⚖️ कोर्ट का रुख
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने स्पष्ट किया कि:
- भारत पहले से ही 140 करोड़ की आबादी का बोझ उठा रहा है, और यह “धर्मशाला” नहीं है जो दुनिया भर से शरणार्थियों को आश्रय दे सके।
- याचिकाकर्ता को UAPA के तहत दोषी ठहराया गया था और उसकी 7 साल की सजा पूरी हो चुकी है, लेकिन वह अब भी हिरासत में है।
- याचिकाकर्ता के वकील ने बताया कि उसकी पत्नी और बच्चे भारत में हैं, और वह श्रीलंका लौटने पर जान के खतरे का सामना करेगा।
- कोर्ट ने जवाब दिया: “आपका यहां बसने का क्या अधिकार है? अगर खतरा है, तो किसी और देश चले जाएं।”
🧑⚖️ कानूनी पृष्ठभूमि
- अनुच्छेद 19 के तहत भारत में बसने का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है।
- अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन यह कानून के अनुसार ही लागू होता है।
- भारत ने 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए शरणार्थियों के लिए कोई विशेष कानून नहीं है।
🌍 व्यापक संदर्भ
- भारत में लगभग 58,000 श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी रह रहे हैं, जिनमें से अधिकांश तमिलनाडु के शरणार्थी शिविरों में हैं।
- नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) 2019 में श्रीलंकाई तमिलों को शामिल नहीं किया गया है, जिससे उन्हें नागरिकता प्राप्त करने में कठिनाई होती है।
🧭 निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत की शरणार्थी नीति और सीमित संसाधनों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को दर्शाता है। यह निर्णय भविष्य में अन्य शरणार्थी मामलों में भी मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है।


